बुधवार, 13 जुलाई 2011

यह बच्चा कैसा बच्चा है

इब्ने इंशा जी की मशहूर नज्Þम 'कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा चर्चा तेरा' तो सभी ने सुनी होगी। और इस नज्Þम की खूबसूरती में कई बार डूबे भी होंगे। अपने प्रियतम की खूबसूरती को बड़े ही दिलकश अंदाज से बयां किया है इंशा जी ने। हर लफ्ज़ में प्रेम छलकता है। लेकिन प्रेम की इस खूबसूरत रचना का सृजन करने वाले इंशा जी उन बारीक चीजों को भी विस्तार से देखते हैं, जो हमारी-आपकी नजरों से गुजरती तो हैं, पर उन पर नज़र अक्सर ठहरती नहीं है। इंशा जी की रचनाओं में से मेरी पसंदीदा एक और रचना...

1.
यह बच्चा कैसा बच्चा है

यह बच्चा काला-काला सा
यह काला-सा, मटियाला सा
यह बच्चा भूखा-भूखा सा
यह बच्चा सूखा-सूखा सा
यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पर तन्हा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौना में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी-अब्बू हैं
ना इसकी आपा-खाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है

2.
यह सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल है
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में खोशा है
ना इस सहरा में सब्जा है
ना इस सहरा में साया है

यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का सहरा है

3.
यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है
यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किसकी दुनिया है

4.
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्जा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटरिया हैं
कहीं महफिल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाजार सजे
यह रेशम है, यह दीबा है
कहीं गल्ले के अम्बार लगे
सब गेहूँ धान मुहैया है
कहीं दौलत के सन्दूक भरे
हाँ ताम्बा, सोना, रूपा है
तुम जो माँगो सो हाजिÞर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है ?
वो किस धरती के टुकड़े हैं ?
यह किस दुनिया का हिस्सा है ?

5.
हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
वह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बन्दे हैं
सब बन्दों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फ़र्क नहीं
इस धरती पर हक सबका है

6.
यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
(क्या मुश्किल है, हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा है?)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इन्सान जो अब तक जिÞन्दा है)
फिर देखिए कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है

7.
इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है, वह सबका है
सब अपने हैं कोई गÞैर नहीं
हर चीज में सबका साझा है
जो बढ़ता है, जो उगता है
वह दाना है, या मेवा है
जो कपड़ा है, जो कम्बल है
जो चाँदी है, जो सोना है
वह सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है, जो मेरा है

यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा सबका बच्चा है।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

हबीब जालिब, साथी सचिन की कलम से...

अभी तक तो जो कुछ इस ब्लाग पर प्रस्तुत करता रहा, वह अकेले की पसंद थी। लेकिन पिछले दिनों एक लेखक को एक साथी के साथ पढ़ा। मेरे उन साथी ने उस लेखक का पूरा जीवन चित्र ही उकेर दिया है अपने ब्लाग पर। यहां उसी पोस्ट का लिंक दे रहा हूं। इस उम्मीद के साथ कि इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आप खुद को उस शायर के रूबरू पाएंगे। तो प्रस्तुत हैं हर समय के समकालीन शायर हबीब जालिब साथी सचिन की कलम से...

अवाम के शायर हबीब जालिब की याद में

रविवार, 13 मार्च 2011

चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली


यूं तो चाँद तकरीबन हर शायर का प्रिय विषय रहा है, लेकिन इब्ने इंशा का चाँद जैसे उनका ही कोई हिस्सा है। गिनी-चुनी ही रचनाएं होंगी जिनमें इंशा जी ने चाँद का ज़िक्र न किया हो। मोहब्बत का कारोबार समझाते हुए चाँद के तौर-तरीके भी नुमायां हैं इस ग़ज़ल में... 

सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ
अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ

चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया
हम जो आँख झपक लें सो लें ऐ दिल हमको रात कहाँ

पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला
और जो काम जहाँ को देखें फुरसत के हालात कहाँ

क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो
इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

हर एक चीज़ वही हो जो है - फैज़ अहमद 'फैज़'


फैज़ अहमद 'फैज़' का नाम हर किसी के लिए इतना जाना पहचाना है कि उनके बारे में कुछ कहना.... 
कुछ कहने की ज़रूरत भी क्या है। बस आज उनके जन्मदिन पर उन्हीं की एक नज़्म से उन्हें याद कर लिया जाए... 


तुम न आये थे तो हर चीज़ वही थी कि जो है
आसमां हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राह-गुज़र, रंग-ए-फ़लक
रंग है दिल का मेरे "ख़ून-ए-जिगर होने तक"
चम्पई रंग कभी, राहत-ए-दीदार का रंग
सुरमई रंग के है सा'अत-ए-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, ख़स-ओ-ख़ार का रंग
सुर्ख़ फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू-रंग, शब-ए-तार का रंग

आसमां, राह-गुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है
अब जो आये हो तो ठहरो के कोई रंग, कोई रुत, कोई शय
एक जगह पर ठहरे

फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है
आसमां हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय |