रविवार, 26 फ़रवरी 2012

सज़ा और सवाल - अहमद फ़राज़

एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ?
मैं हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो मिटा क्यूँ नहीं देते ?


मोती हूँ तो दामन में पिरो लो मुझे अपने,
आँसू हूँ तो पलकों से गिरा क्यूँ नहीं देते ?


साया हूँ तो साथ ना रखने कि वज़ह क्या
पत्थर हूँ तो रास्ते से हटा क्यूँ नहीं देते ?
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एक संग- तराश जिसने बरसों
हीरों की तरह सनम तराशे
आज अपने सनमकदे में तन्हा
मजबूर, निढाल,ज़ख़्म-ख़ुर्दा 
दिन रात पड़ा कराहता है


चेहरे पे उजाड़ ज़िन्दगी के
लम्हात की अनगिनत ख़राशें
आँखों के शिकस्ता मरक़दों में
रूठी हुई हसरतों की लाशें


साँसों की थकन बदन की ठंडक
अहसास से कब तलक लहू ले
हाथों में कहाँ सकत कि बढ़कर
ख़ुद-साख़्ता पैकरों को छू ले


ये ज़ख़्मे-तलब, ये नामुरादी
हर बुत के लबों पे है तबस्सुम
ऐ तेशा-ब-दस्त देवताओ!
तख़्लीक़ अज़ीम है कि ख़ालिक़
इन्सान जवाब चाहता है.